jaag jaag re jaag

· ojaswi books
3,8
38 vélemény
E-könyv
26
Oldalak száma
Az értékelések és vélemények nincsenek ellenőrizve További információ

Információk az e-könyvről

 

अपना ज्ञान प्रदान करो, अपनी कृपा प्रदान करो |”

 

यह उनकी कृपा ही है कि उन्होंने मानव तन दिया, फिर विवेक दिया, फिर सत्संग दिया, संतों का दर्शन दिया, सेवा का भाव दिया, अच्छा परिवार दिया, श्रद्धा-भक्ति-विश्वास दिया, अपने चरणों में प्रेम दिया | सचमुच बड़े ही भाग्यशाली हैं, नसीबाँवाले हैं हम, कि उस ईश्वर ने हमें इस योग्य समझकर इतना-इतना दिया ! बस यही प्रार्थना है कि उसका नाम न छूटे, भक्ति-सेवा न छूटे |

 

स्वर्ग से सुंदर, सपनों से प्यारा, है तेरा दरबार !

हम को हर पल याद रहे,

हे सांई ! तुम्हारा प्यार !!

सांई तेरा प्यार न छूटे |

गुरु दरबार न छूटे |

 

 

 

 

ब्रह्मज्ञान की जीवन में अति आवश्यकता

 

दुर्लभ मानव-तन में सिर्फ रोटी, कपडा, मकान और परिवार पाकर संतुष्ट हो जाना-यह मूर्खता है |

“आहार निद्रा भयमैथुन्म च

सामान्यमेतदपशुभिर्नारायणाम् |”

 

आहार, निद्रा, भय और मैथुन –ये चार तो पशुओं में भी देखे जाते हैं – मनुष्य इन चार से अधिक आगे न बढ़े तो पशु में और इसमें क्या फर्क ?

तीन चीजों को दुर्लभ बताया – मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व और महापुरुषों का मिलना | आप अगर अपने जीवन को सार्थक और सफल बनाना चाहते हैं तो ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा भीतर जागृत कीजिए और किसी श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, आत्मवेत्ता महापुरुष को ढूंढकर उनसे भवसागर से पार जाने की युक्ति सीख लीजिए |

 

“कभी न छूटे पिंड दुखों से जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं |”

 

 

 

 

 

 

 

 

माने पश्चाताप नहीं, वैराग्य माने ग्लानी नहीं | वैराग्य जबरदस्ती भी नहीं होना चाहिए | वह विवेक से, प्रसंख्यान से अर्थात गुण-दोष का अलग-अलग विमर्श, उनकी तुलना करके होना चाहिए | हेयोपादेय शून्य वृति वैराग्य है |

“तीन टूक कौपिन की, भाजी बिना लूण |

तुलसी ह्रदय रघुवीर बसै, तो इंद्र बापड़ा कूण ?”

वैराग्य की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताया गया |

श्रीमदभागवत महापुराण में आया है कि-

 

देहेअस्थिमंस्रुधीरेभिम्तीं त्यज त्वं

जायासुतादिशु सदा ममता विमुश्र |

पश्यानिश्म जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं

वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ||

                   (श्रीमद्भाग. महात्म्य ४.७६)

कि आप अगर सत्य को पाने की जिज्ञासा रखटे ही और इसी मनुष्य शरीर में दुर्लभ वस्तु परमात्मतत्व को पाना चाहते हो तो उसके लिए वैराग्य में जब तक आपको रस नहीं आएगा तब तक यह संभव नहीं है |

 

“पश्यानिश्म जगदिदं क्षणभंगनिष्ठ”

इस जगत को आप किस नजर से देखो ? कि क्षणभंगुर देखो ! क्षणभंगुर अर्थात क्षण में ही जो भंग हो जाए – जैसे पानी में उठने वाले बुलबुले, जैसे आकाश में बादल | ऐसे ही संसार और अपने व अन्य शरीरों को क्षणभंगुर समझें | किसी का भी शरीर कभी एक जैसा रहा नहीं, रह सकता नहीं |

 

“तन धरिया कोई न सुखिया देखा,

जो देखा सो दुखिया रे”

राजा हो, रंक हो, किसी भी जाती-पाती का हो लेकिन सभी के शरीर में, मन में, जीवन में कोई न कोई खटपट तो बनी ही रहती है | तो इस दुखालय संसार को जिसने दुखरूप समझा और भगवान के भजन को महासुखरूप समझकर भजन में लग गया, उसे ही परम सुख की प्राप्ति होती है |

बंधन किसको कहा ? कि यह आसक्ति ही बंधन है – देह में, गेह में, रिश्ते-नातों में और मन से जुड़े तमाम

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ये सब प्राणी तो इन्द्रियों के एक-एक भोग के प्रति आसक्त होते हैं और अपनी जान गवां देते हैं | मानव की तो पाँचों इन्द्रियाँ प्रबल हैं | अगर उसने विवेक वैराग्य का आश्रय न लिया और इन्द्रियों के विषयों में ही उलझा रहा तो उसकी क्या हालत होती – इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती |

अष्टावक्रजी ने भी राजा जनक को यही उपदेश दिया कि – “जो मोक्ष है तू चाहता, विष सम विषय तज तात रे !” हे वत्स ! यदि तू मोक्ष चाहता है तो इन विषयों को विष समझकर इनका त्याग कर |

इसलिए विवेकी साधक के लिए अनिवार्य है कि वह विवेक की ढाल से इन विषरूपी विषयों से स्वयं की रक्षा करते हुए अपने लक्ष्य-पथ पर आगे बढ़ता रहे......!

 

 

 

 

 

साधो ! हिम्मत कभी न हारो !

 

हजार-हजार असफलता आने पर भी जो उत्साह नहीं छोड़ता व हिम्मत से आगे बढ़ता ही रहता है वह अवश्य सफल हो ही जाता है | इतिहास क्या है ? ऐसे मुट्ठीभर लोगों की वीरगाथा जिन्हें अपने आप पर विश्वास था, जिन्हें हजार-हजार विघ्न-बाधाएं, प्रतिकूलताएं, दुःख व संकट अपने लक्ष्य से विचलित व हतोत्साहित न कर पाए | सफलता महारानी उनकी दासी बनने को बाध्य हो जाती है | जो अपने दिव्य गुणों द्वारा, त्याग-तपस्या-तितिक्षा व सेवा-साधना-पुरुषार्थ द्वारा आदर्शों की ऊँची सीढ़ी पर खड़े हो जाते हैं, सारी दुनिया उनकी तरफ ऊँची निगाह से देखती है | वे वंदनीय, पूजनीय हो जाते हैं | इसलिए थको मत | रुको मत |

मत देखो कितनी दूरी है, कितना लंबा मग है !

और तुम्हारे साथ आज कहाँ तक जग है !

लक्ष्य प्राप्ति की बलिवेदी पर अपना तन-मन वारो,

 

 

 

 

 

 

 

 

 

तमाम दुखों से, क्लेशों से, संतापों से मुक्त होने का सिर्फ एक ही मार्ग है – ‘ब्रह्मज्ञान’ | अतः ब्रह्मज्ञान पाने के लिए सब लोगों को प्रवृत्त होना चाहिए |

‘न चेदिहावेदीन् महती विनाष्टिः |’

यदि इसी जीवन में परमात्मा को नहीं जान लिया, तो तुमने अपना सत्यानाश कर लिया |

‘य एतद विदु:अमृतास्ते भवन्ति |’

जो इसको जान लेते हैं वे अमृत हो जाते हैं | इसलिए महान विनाश से बचने के लिए ब्रह्म की जिज्ञासा करो और मौत आने से पहले ब्रह्मज्ञान प्राप्त करो |

“अथातो ब्रह्मजिज्ञासा”

वेद में कहा गया है कि यज्ञ, दान, तप, उपवास और वेदानुवाचन से ब्राह्मण लोग इस ब्रह्मा को जानने की इच्छा किया करते हैं |

‘तमेव वेदानुवाचनेन ब्राहमणा: विविदिश्न्ति

यज्ञेन दानेन तपसा अनाशकेन’

          (बृहदारण्यक उपनिषद ४/४/२२)

 

 

 

 

 

 

ब्रह्म को जानने की इस इच्छा को ‘विविदिषा’ कहते है | सब सत्कर्मों का फल यह है की आपके ह्रदय में परमात्मा को जानने की इच्छा का उदय हो |

शुद्ध अंतःकरण में ही विविदिषा होती है | अशुद्ध अन्तःकरण में केवल अर्थ और काम की ही इच्छा होती है |

ब्रह्मात्मैक्य-बोध वेदांत के दृष्टांत, चुटकुले, कहानी, सुनने-सुनाने से नहीं होता | वे तो हमारे मनोरंजन मात्र का ही साधन बनते हैं | ब्रह्मात्मैक्य-बोध के लिए गंभीर दार्शनिक विचार चाहिए | विद्वान होना, व्याख्यान में कुशल होना, यह दूसरी चीज है और ऐसा विचारक होना जिससे मुक्ति मिलती है, यह दूसरी चीज है | तुम्हारा वैदुष्य तुम्हें अच्छा भोग तो दे सकता है परंतु वह मोक्ष नहीं दे सकता क्योंकि वैदुष्य अहंकार के आश्रित रहता है और अहंकार को बढ़ाता है |

शंकराचार्य ने कहा- ‘दुर्लभ:चित् विश्रांति:’

चित् की विश्रांति का मिलना बहुत दुर्लभ है और यह

 

 

 

 

 

 

 

 

 

वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठ:

 

श्रीमदभागवत महापुराण के प्रारंभ में एक श्लोक आता है जिसका तात्पर्य है कि जिस-जिस भी भोग पदार्थ या विषय में सांसारिक लोग सुख समझते हैं, उनमें कहीं भी सुख नहीं है, केवल सुख की भ्रांति मात्र है | एक होता है होना और दूसरा होता है भासना, दोनों में अंतर है | जैसे सीपी में चांदी भास रही है, पर है नहीं | मरुभूमि में पानी का भास हो रहा है पर है नहीं |

सुबह-सुबह ओस की बूंदों पर जब सूर्य की किरणों पड़ती हैं तो वे मोटी के समान भासती हैं पर हैं वे वास्तव में ओस की बूंदें ! ठीक उसी प्रकार संसार सुख-आनंदरूप भासता है, पर है नहीं | जिसने संसार की वास्तविक स्थिति को जान लिया, पहचान लिया, यह संसार अनित्य, दुखरूप, क्लेशमय है – ऐसा जिसने भली प्रकार से समझ लिया है, ऐसे बुद्धिमान मनुष्य को ही वैराग्य हो सकता है |

वैराग्य माने घृणा भी है, द्वेष भी नहीं है | वैराग्य

 

 

 

 

 

 

 

 

विश्र्वजित यज्ञ

 

इस यज्ञ में न कुछ देना शेष रहता है, न पाना ही | अपने पास जो कुछ भी है, सबको परमात्मा के काम में लगा देना, यह विश्वजित यज्ञ की विधि है | यह बहुत मूल्यवान यज्ञ है, प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए | किंतु हमसे तो कुटुम्बजित यज्ञ भी नहीं हो पाता | क्योंकि हम अपने संकुचित स्वार्थ में उलझे हैं | विश्व की तुच्छ चीजें पाने में लगे हुए हैं | विश्व के पीछे भागने की अपेक्षा यदि हम संपूर्ण विश्व जिसके आधीन है, उस विश्वेश्वर को पाने में लग जाएं तो विश्व स्वतः ही हमारे पीछे-पीछे आएगा |

उस विश्वेश्वर को पाने के लिए केवल ‘प्रेम’ चाहिए | जिस प्रकार लोभी का रुपयों में प्रेम होता है, तो वह हर पल यही सोचता रहता है कि ‘रुपए कैसे मिलें?’ – इसी प्रकार भगवान का चिंतन, भजन होना चाहिए |

 

कैसी मूर्खता की बात है कि हम रुपयों जितना दर्जा भी भगवान को नहीं देते | रुपयों से जो चाहे सो मिल सकता है लेकिन भगवान नहीं मिल सकते | भगवान को खरीदने के लिए श्रद्धा और प्रेम चाहिए, उसका आश्रय

 

चाहिए | ईश्वर के आश्रित हो जाना – यह विश्वजित यज्ञ साधने का सबसे सुगम व सरल साधन है |

भगवान की प्रतिज्ञा है कि जो मेरा आश्रय ले लेता है, उसका मैं कभी त्याग नहीं करता | जिसको भगवान पर भरोसा है उसके साधन में कभी कमी नहीं आ सकती | जिन लोगों के साधन में ढिलाई आ रही है, संसार में मारे-मारे फिर रहे हैं, ईश्वर पर भरोसा हो जाए तो उनकी कायापलट हो सकती है |

किसी जगह युद्ध हो रहा हो, उसमें कोई शक्तिशाली का आश्रय ले लेता है तो निर्भय हो जाता है | सेना के बल पर देश का राजा निर्भय रहता है एवं प्रजा राजा के कारण निर्भय रहती है | जब एक छोटा सा राजा हमें आश्रय दे देता है तो हम निर्भय हो जाते हैं, फिर वह परमात्मा तो अनंत बलशाली है | उसी के आश्रय से हमें पूर्ण निश्चिन्तता व निर्भीकता मिल सकती है |

यह बात याद रखो कि जो मिला है उससे हमें संसार की सेवा करनी है | यह भाव पक्का हो गया तो आपका संपूर्ण जीवन ही विश्र्वजित यज्ञ हो गया |

 

 

 

 

 

कर्म का सिद्धांत

 

१. है, है, है      २. है, है, नहीं

३. नहीं, नहीं, है    ४. नहीं, नहीं, नहीं

 

राजा ने अपने मंत्री को इन प्रश्नों के उत्तर सात दिन के भीतर देने के लिए कहा और घोषणा की कि यदि वह उत्तर नहीं दे पाया तो उसे मृत्यु दंड दिया जायेगा | मंत्री और सारे सभासद इन विचित्र प्रश्नों को सुनकर हैरान हो गये | मंत्री ने काफी विचार किया, कितनी ही किताबें देख लीं किंतु उत्तर नहीं मिल पाए | अतः इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए चिंतित रहने लगा |

 

एक बार भोजन करते समय उसका चिंताग्रस्त मुख देखकर उसकी पुत्री ने पिता की चिंता का कारण जानने की कोशिश की परंतु मंत्री ने उसकी बात टाल दी | बहुत आग्रह करने पर उसने राज-दरबार में हुई बातें अपनी पुत्री को बताई |

 

 

 

मंत्री की बेटी चतुर थी | संत महात्मा की उस पर कृपा थी | वह हर रोज सारस्वत्य मंत्र का जप करती थी जिससे उसकी बुद्धि सूक्ष्म हो गई थी | वह पिता के प्रश्नों को सुनकर थोड़ी शांत हो गई | उसने अपने पिता से कहा कि आप चिंता न करें, मैं आपके प्रश्नों का उत्तर राजा को दूंगी | मंत्री को उसकी बात सुनकर आश्चर्य हुआ कि जिन प्रश्नों के उत्तर मुझे नहीं मिल रहे उनका उत्तर यह लड़की कैसे देगी ? किंतु उसको अपनी पुत्री की बुद्धि पर भरोसा था, इसलिए वह सहमत हो गया |

समय की अवधि पूरी होने पर पिता-पुत्री दोनों राज-महल की ओर चल दिए | रास्ते में राजगुरु के पुत्र जा रहे थे | मंत्री की उस बुद्धिमान लड़की ने अपने पिता से रथ रुकवाकर उस गुरुपुत्र को आदर सहित रथ में बैठाने की विनती की | उसकी विनती को स्वीकार करके राजगुरु के पुत्र रथ में बैठ गये | थोड़ी दूर जाने पर नगर सेठ का पुत्र जुआँ खेल रहा था | पुत्री के कहने पर मंत्री ने उसे भी अपने साथ ले लिया | और आगे जाने पर एक बूढा

 

 

 

 

 

 

 

 

किं वा तर्कनिवेशपेशलमति: योगीश्वर: कोपि किम् ||

इत्थं तर्क – वितर्कजल्पमुखरै:, सम्भाषामानैरजनै: |

न क्रुद्धा: पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः ||

 

यह ब्राह्मण है कि चांडाल, कोई तपस्वी है कि शुद्र है, यह तार्किक विद्वान है कि कोई योगेश्वर है ? लोग उनके बारे में तर्क-वितर्क, वाद-विवाद करते रहते हैं | सुनकर उनके मन में न खुशी होती है, न नाराजगी होती है | वे तो पानी मस्ती में, अपनी मौज में चलते रहते हैं | कैसा विलक्षण स्वातंत्र्य है !

‘स्वातंत्र्य परमं सुखम् |’

जाति से स्वातंत्र्य, समाधि से स्वातंत्र्य, तर्क से स्वातंत्र्य, वर्णाश्रम से स्वातंत्र्य, श्रुतिस्मृति से स्वातंत्र्य, धर्माधर्म से स्वातंत्र्य, ईश्वर-परमेश्वर से स्वातंत्र्य, माया अविद्या से स्वातंत्र्य | उनके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं, तो उनके लिए स्वातंत्र्य, पारतंत्र्य का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है | कैसी अदभुत स्थिति ! विलक्षण अनुभूति !

 

 

सम्पूर्णम् जगदेव नन्दनवनं

सर्वेपि कल्पद्रुमा: |

गांगं वारि समस्तवारिनिवहा:

पुण्या: समस्ता: क्रिया: ||

 

सारा जगत नंदनवन हो गया, सारे वृक्ष कल्पद्रुम हो गये | सारे कर्म धर्म हो गये, पुण्य हो गये | हिंदी में बोले चाहे संस्कृत में बोले, सब वेदवाणी है | जो बोलता है वह वेदवाणी है | सारी धरती काशी हो गई ‘वाराणसी मेदनी’ |

हाय-हाय करके चिल्ला रहा है और धरती में लोट-पोट हो रहा है और समाधि लगातार बैठा है, सारी स्थिति ही ब्रह्मारूप है –

‘सर्वावस्थितिरस्य ब्रह्मरूपा’

सब उसकी दृष्टि में परब्रह्म है | भला कौन उसे पहचान सकता है !!!

 

 

 

 

ब्रह्मज्ञानी को पहचानना मुश्किल है......जो पहचाने सो धन्य है !

 

जिस पुरुष ने सच्चिदानंदस्वरूप परब्रह्म को जान लिया, अपने आत्मरूप में अनुभव कर लिया, वह मुक्तात्मा ब्रह्मवेत्ता शरीर में रहता या दीखता हुआ भी वास्तव में शरीर से न्यारा है |

जिन्हें ब्रह्मज्ञान हो गया ऐसे ज्ञानवान सब एक तरह से ही नहीं जीते | कोई योगी के रूप में अन्तर्मुख रहते हैं तो कोई भोगी के रूप में रहते हैं तो कोई रागी के रूप में भी रहते हैं |

श्री उड़ियाबाबाजी महाराज एक श्लोक बोलते थे –

क्वचिच्छिष्ट: क्वचिद भ्रष्ट: भूतपिशाचवत |

नानारूपधरो योगी विचचार महीतले ||

 

हैं तो ब्रह्मज्ञानी, पर कहीं पर शिष्ट की तरह रहते हैं, तो कहीं वे भ्रष्ट की तरह रहते हैं | कहीं भूत-पिशाच की

 

नाई रहते हैं | अनेक रूप धारण करके वे विचरण करते रहते हैं ! कैसी ज्ञानी की स्थिति !

कोई देवता, कोई दानव-दैत्य, कोई मनुष्य, कोई शास्त्र, कोई विधि-विधान उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते क्योंकि जिस मशीन को पकड़कर ईश्वर नचाता था –

“यंत्रारुढानि मायया”

उस माया रूपी यंत्र पर से वे उतर गए, वह यंत्र ही टूट गया | जिस यंत्र से तादाम्य किये हुए थे वह यंत्र ही मिथ्या हो गया | ऐसी स्थिति हुई कि उनको कोई पहचान न सके |

“यं न संतं न चासन्तं, नाश्रुतं न बहुश्रूतं |

न सुवृततं न दुर्वृततं, वेद कश्चित स ब्राह्मण: ||”

 

कोई कहे संत है, कोई कहे असंत है, कोई कहे मुर्ख है, कोई कहे विद्वान है, कोई कहे सदाचारी है, कोई दुराचारी है |

“चांडाल: किमयं द्विजाति:, अथवा शुद्रोथवा तापस: |

 

 

 

 

 

 

 

 

बहुत ऊँची वस्तु है | धन, मान, भोग और अन्य संसार की वस्तुएं यहाँ तक कि स्वर्ग मिलना भी दुर्लभ नहीं है, पर अपने चित को परम शांत करना, यह बहुत ऊँचे दर्जे की बात है, अपने मन में ब्रह्म प्राप्ति की जिज्ञासा होना और उसको प्राप्त करने की दिशा में, तत्परता से प्रयत्नशील होना, यह बहुत बड़ी बुद्धिमानी की बात है |

आश्चर्य है हर रोज संसार में तरह-तरह के दुःख देखने-भोगने के बावजूद भी मन उससे विरत नहीं होता और सच्चिदानंदस्वरूप ब्रह्म की ओर उन्मुक्त नहीं होता ! अगर सच्चे मन से आप अपना परम कल्याण चाहते है तो आज और अभी परब्रह्म परमात्मा की जिज्ञासा करो, उसके साथ अपनी एकाकारता का अनुभव करो और तमाम बंधनों से मुक्त हो जाओ | परमात्मा की प्राप्ति का इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं है |

नान्य: पंथ: विद्यतेऽयनाय |

तो आज और अभी से ब्रह्मज्ञान की साधना में लग जाओ-बस इसी में जीवन की सफलता है |

 

 

 

 

मन को मारो मत, मन का निग्रह करो |

 

यह मन भी एक ग्रह है | मन संस्कारों का ही पुंज है, यह नया रास्ता नहीं बताता | मन पुराने में ही उलझा रहना चाहता है | यह मन की प्रवृति है |

‘संत परिक्ष्यान्यतरद भजन्ते मूढ़:

परप्रत्ययनेन बुद्धि: |’

सत्पुरुष का स्वभाव है कि वह परीक्षा कर लेता है कि नया ठीक है कि पुराना ठीक है और फिर जो स्वीकार करने योग्य होता है उसको स्वीकार करता है औत मूढ़ है, वह अपने विवेक-विचार से नहीं चलता है |

‘परप्रत्ययनेन बुद्धि’

उसकी बुद्धि को तो कोई पीछे से धकेल रहा है, वह किसी का मोहरा बन रहा है |

तो यह जो मन है, इसका विनिग्रह चाहिए | विनिग्रह मतलब-विशेष निग्रह | इसका अर्थ न तो मन को मारना है

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कृपामय की अनंत कृपा के हम हैं कृपापात्र नसीबाँवाले

 

एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, कृपापात्र कौन हो सकता है ? संत ने उत्तर दिया – कृपापात्र वही हो सकता है, जो एक ही कृपालु की कृपा की आशा करता है और जो अपनी सारी शक्ति समर्पित कर केवल कृपा पर ही पूर्ण भरोसा करता है | एकमात्र कृपा ही जिनका सहारा है, वे ही कृपा-पात्र हैं और कृपा का पूर्ण आश्रय वे ही ग्रहण करते हैं, जो अपने प्रेमास्पद के पूर्ण प्रभाव को जानते हैं |

कृपामय की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल सुगम साधन है – ‘प्रार्थना’ ! सच्चे मन से की हुई प्रार्थना कृपामय-ज्ञानमय-आनंदमय परमात्मा तक पहुंचे बिना नहीं रहती |

एक प्रार्थना है जो हर रोज सुबह उठने के बाद तथा रोज रात को सोने से पहले करनी चाहिए | यह प्रार्थना एक ऐसे महापुरुष के अन्तःकरण में प्रकट हुई जिन्होंने भगवत्कृपा का अनुभव किया था और जिन्होंने कृपामय परमात्मा की कृपा प्राप्त करने का अपनी अनुभव संपन्न वाणी के द्वारा मार्गदर्शन किया था-ऐसे स्वनामधन्य महापुरुष थे स्वामी श्री शरणानंदजी महाराज-मानव सेवा संघ के प्रवर्तक !

“मेरे नाथ ! आप अपनी सुधामयी सर्व-समर्थ पतितपावनी, अहैतुकी कृपा से दुखी प्राणियों के ह्रदय में त्याग का बल एवं सुखी प्राणियों के हृदय में सेवा का बल प्रदान करें, जिससे वे दुःख-दुःख के बन्धन से मुक्त हों | आपके पवित्र प्रेम का आस्वादन कर कृतकृत्य हो जाएं !”

ओम आनंद ! ओम आनंद ! ओम आनंद !

 

“हे हृदयेश्वर ! हे प्राणेश्वर !!

हे सर्वेश्वर ! हे परमेश्वर !!

विनती यह स्वीकार करो,

भूल दिखाकर उसे मिटाकर, अपना प्रेम प्रदान करो | पीर हरो प्रभु ! दुःख हरो, अज्ञान हरो, अशांति हरो |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ने भी खुश होकर उसे बहुत इनाम दिए और मंत्री को भी ऐसी बुद्धिमान कन्या का पिता होने के लिए बधाई दी |

आप भी अपने जीवन में ऐसे काम करो कि जिससे कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाओ | कर्म बन्धन में फंसने के लिए नहीं अपितु मुक्त होने के लिए करो | भगवान ने गीता में इसी को नैष्कर्म्य-सिद्धि कहा है |

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः |

 स संन्यासी च योगी च न निरयनिर्न चाक्रिय: ||

             (श्रीमदभगवतगीता :६.१)

जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है |

 

 

 

 

विषय विष समान

 

दुर्लभः विषयत्यागो, दुर्लभः तत्वदर्शनम् |

दुर्लभः सहजावस्था सद्गुरु-करुणा विना ||

इस संसार में विषयों का त्याग होना मुश्किल है, तत्वदर्शन दुर्लभ है, किंतु ये दुर्लभ चीजें भी सुलभ हो सकती हैं सद्गुरु की करुणा कृपा होने पर |

हमारी ईश्वर-प्राप्ति की तड़प और सेवा-साधना में तत्परता हो तो सद्गुरु की कृपा अपने आप खींची चली आती है | इन्द्रियों के पांच विषयों में ही सारे लोग उलझे हैं | कोई विरला ही होता है जो इन विषयों से मुक्त होकर अपने स्वरूप में आता है |

रामायण में भी आता है कि भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हैं कि –

“उमा ! तिनके बड़े अभाग,

जे नर हरि तजहिं विषय भजहिं |”

 

 

 

 

 

 

 

 

 

और न मन को दफनाना है | विशेष निग्रह माने मन को साधना-मन हमारे इशारे को समझे | निग्रह माने काबू में करना और विनिग्रह माने विशेष रीति से काबू में करना |

माने वह खड्डा देखे तो वहाँ रुक जाए, उसमें कूद न पड़े, आँख से देखे तो बचा ले, बुरे रास्ते से न जाए, लगाम ढीला रखने पर भी कायदे से ही चले |

अब मन से करना क्या है ? कि मन से आत्मा-अनात्मा के बारे में विचार करना है, साधन-असाधन के बारे में विचार करना है | विषय चिंतन या व्यर्थ चिंतन नहीं करता है | जैसे-एक स्त्री को देखा, अब मन से उसी के बारे में सोच रहे हैं, तो मन की शक्ति भी क्षीण हो रही है, समय का भी अपव्यय हो रहा है, तुम्हारे मन में वासना भी बढ़ रही है और वह कभी भी पूरी होने वाली है नहीं | तो विनिग्रह का अर्थ यह हुआ कि मन से कह दें कि बेटा इसके बारे में मन सोचो और सधे हुए घोड़े की तरह जहाँ इशारा किया कि ठहर जाओ, तो वहीँ ठहर जाय | जहाँ कह दिया चलो, वहाँ चला जाय |

 

 

 

मन को मारना-यह अध्यात्मशास्त्र का सिद्धांत नहीं है, मन को अपने संकेत के अनुसार चलाना-यह अध्यात्मशास्त्र का सिद्धांत है | मन का वशीकरण होता है, मन की मृत्यु नहीं होती है |

‘लालयेत चितबालकम्’

जैसे नन्हें बालक का लालन-पालन किया जाता है-कभी उसको कहते हैं कि यह चीज कर लो तो मिठाई खिलावेंगे, कभी यह भी कहते हैं कि यह काम करोगे बेटा तो जल जाओगे | कभी कहते हैं कि ऐसा काम करोगे तो हम तुमको गोद में नहीं लेंगे या तो हम तुमको बांध देंगे | भय और लोभ-दोनों वृति चाहिए और दोनों से मन को साधना चाहिए |

 

 

 

 

 

 

 

 

हीरा सो जनम गंवायो भजन बिन बाँवरे ..............

 

भगवान की सेवा करने में, भगवद भजन में लोकलाज की परवाह नहीं करनी चाहिए | भगवान का भजन-कीर्तन, जप-ध्यान, सत्संग-सुमिरन आदि करते हुए मन में यह भाव बिल्कुल नहीं आना चाहिए कि लोग क्या कहेंगे ? क्या सोचेंगे ?

आपने बहुत सारा समय व जीवन इधर-उधर की बातों में, चर्चाओं में, खान-पान में, सोने में और लौकिक शिक्षा में लगा दिया है जो मरने के बाद कुछ काम नहीं आएगा | जो असली खजाना, शाश्वत धन है अब उसकी कमाई में भी लग जाओ | कब तक यूँ ही अपने जीवन का अमूल्य समय इधर-उधर की बातों में नष्ट करते रहोगे ? मोह-माया में फँसकर इस मानव तन को भाग्वात्सुख को प्राप्त किये बिना यूँ ही खो देना – यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? विचार करो, विवेक करो, सावधान हो जाओ और इस भागदौड़ भरी जिंदगी में ईश्वर को, जन्मदाता जगदीश्वर को कहीं भूल तो नहीं रहे-याद करो |    

 

 

 

अनेकानेक संतों, भक्तों, महापुरुषों ने अपने जीवन को भगवतज्ञान से, भगवतभक्ति से धन्य किया, आप भी कर सकते हो | खोज लो, ढूंढ लो ऐसे महापुरुषों को जिन्होंने ज्ञान-भक्ति-योग और निष्काम कर्म से अपना जीवन सफल बना लिया है | आप भी उनकी कल्याणकारी अमृतवाणी का लाभ लो | नश्वर जीवन में शाश्वत परमात्मा का संगीत प्रगट होने दो और देखो शाश्वत जीवन का शाश्वत आनंद ! शाश्वत सुख !!

आज भी ऐसे अनेक भक्त हैं, साधक हैं, जिन्होंने अपना जीवन प्रभु के श्री चरणों में समर्पित कर दिया है, उनका योगक्षेम प्रभु वहन कर रहे हैं | प्रभु के सहारे वे निश्चिंत हैं, सुरक्षित हैं | दयासागर, करुणावरुणालय, आनंदकंद सच्चिदानंद परमात्मा का जीवन के पग-पग पर स्मरण चिंतन करते रहो, श्रीहरि पर विश्वास रखो | हीरा जैसी अनमोल काया को व्यर्थ न गंवाने का आज ही संकल्प करो व अपने जीवन और कार्यों से अधिकाधिक लोगों को परमात्मा की ओर लगाने का प्रयत्न करते रहो | यही जीवन को सफल बनाने का सुंदर उपाय है |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

वस्तु-व्यक्तियों में हमारी आसक्ति हो जाती है | घर छोड़कर जो साधु बन जाते हैं, जब वे साधुत्व की दिशा लेने जाते हैं तो उन्हें कहा जाता है कि अपने घर के सौ कोस तक का पानी मत पीना | ऐसा इसलिए कि छुपी हुई आसक्ति, ममता कहीं फिर से न जग जाए, फिर उनका जीवन उसी आसक्ति में फंस जायेगा तो कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे | वैराग्य में निष्ठा प्राप्त करने के लिए, सत्यप्राप्ति के लिए पथिकों ने अपने घर-कुटुंब का त्याग किया | जंगलों में, गिरी-गुफाओं में कष्ट सहन करके तपस्या की | वैराग्य में ही उन्होंने रस का आनंद लिया |

यह वैराग्य किसी महाभाग्यवान को महापुरुषों के ज्ञान, उनकी अमृतवाणी का पान करने से ही होता है | छोटा-मोटा वैराग्य तो हो जाता है पर दृढ़ वैराग्य के लिए चाहिए- दृढ़ विवेक ! ठीक से यदि आपने जीवन में धर्म का पालन किया है तो आपको वैराग्य आये बिना नहीं रहेगा | तुलसीदास जी ने कहा –

‘धर्म ते विरति, योग ते ज्ञाना,

ज्ञान ते पद पावे मन विश्रामा |’

अगर भीतरी सुख को जागृत करना हो तो इस संसार की क्षणभंगुरता पर विचार करें | व्यर्थ की इच्छाओं, तृष्णाओं का त्याग करें | मन कहाँ-कहाँ आसक्त हो रहा है इसका निरीक्षण करें और अनासक्त भाव जागृत करें |

बोले महाराज आसक्ति छूटती नहीं | तो इस आसक्ति की धारा यानी दिशा बदलने की युक्ति शास्त्रों ने, संतों ने बताई कि आसक्ति को भगवान के, संतों के चरणों में कर दें तो वह मोक्ष का खुला द्वार भी है |

भर्तृहरी ने वैराग्य शतक में कहा कि पूर्ण निर्भयता तो वैराग्य में ही है | निर्भय पद की प्राप्ति के लिए बुद्धिमान को वैराग्य का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए |

गीता ने कहा – “इन्द्रियार्थेशु वैराग्यं”(१३,८)

इन्द्रियों के अर्थ (विषयों) से वैराग्य करना चाहिए | अभ्यास और वैराग्य दोनों के द्वारा अपने मनीराम को वश में करने वाले का जीवन सफल हो जाता है |

 

 

 

 

वे लोग बड़े अभागे हैं जो मानव जन्म पाने के बाद भी हरि भजन न करने विषयों में ही दिन-रात फँसे रहते हैं |

इस संसार में मुख्य पांच विषय हैं – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध | सारे जीव इन्हीं विषयों में उलझे हैं | और अपने जीवन का समय इसी में खपा रहें हैं |

तुलसीदासजी महाराज ने कहा है –

अली पतंग मृग मीन गज, एक एक रस आँच |

तुलसी तिनकी कौन गति, जिनको व्यापे पांच ||

 

अली अर्थात भौंरा गंध में आसक्त हो जाता है और कमल पर बैठा ही रहता है | जब शाम होती है तब कमल बंद हो जाता है और भौंरा उसी में रह जाता है | उसमें इतनी शक्ति है कि वह लकड़ी में भी छेद कर सकता है तो कमल की पत्तियाँ छेदकर उनमें से बाहर निकलना उसके लिए कठिन कार्य नहीं है किंतु वह सुगंध में इतना आसक्त हो जाता है कि उसी में बैठा रहता है | जब सुबह होती है तब हाथी सरोवर में आता है और कमलों को

 

 

 

 

 

अपने पैरों तले कुचल देता है | उसमें रहा हुआ भौंरा भी मारा जाता है | इस प्रकार भौंरा गंध में आसक्त होकर अपनी जान खो देता हैं |

पतंगा रूप में मोहित होकर अपनी जान गँवा देता है | वह देखता है कि दूसरे पतंगे दीये में जा – जा कर उसमें जल मरते हैं फिर भी वह रूप में इतना आसक्त हो जाता है कि खुद भी दीये में जाकर मरता है |

हिरण शब्द के पीछे विमोहित हो सुध-बुध खो बैठता है और शिकारी के द्वारा पकड़ा जाता है |

मछली स्वाद रस में आसक्त होकर मछुआरे के द्वारा फेंके जाने वाले जाल में फँस जाती है और मारी जाती है |

हाथी स्पर्श के पीछे पागल होता है उसकी यह कमजोरी जानकर शिकारी वन में खड्डा खोदते हैं और उसके ऊपर घास बिछाकर उस पर एक घास की नकली हथिनी रख देते हैं | हाथी उसे देखता है और उसका स्पर्श करने को जाता है और खड्डे में गिर जाता है | फिर शिकारी आकार उसे पकड़ लेते हैं |

 

 

 

 

 

 

 

 

 

सरल सुभाउ न मन कटुलाई............

 

सरलता का सीधा अर्थ है कि जिससे जैसा व्यवहार करना हो, मन भी वैसा हो | जैसे प्रेम का व्यवहार करते हैं, वैसे प्रेम से मन भी भर जाए | बाहर हम जो व्यवहार लोगों से करते हैं उसका अर्थ दूसरों को बनाना नहीं है, अपने अन्तः करण को बनाना है | हमेशा ध्यान रखें कि बाहर के कर्म का फल भीतर मन में होता है |

वास्तव में धर्म का फल क्या है ? धर्म का फल अपने अन्तःकरण का निर्माण है | जैसे कोई सत्कर्म करने से, दान देने से आपको सुख मिला तो यह अपने मन में तृप्ति है, सुख है, जो शांति है, वही फल है | धर्मानुष्ठान के बाद अन्तःकरण की वृति में जो प्रतिफलित सुख है, उस सुख को धर्म का फल बोलते हैं |

सरलता का अर्थ है कि जब आप किसी से मीठे वचन बोलें, तो आपका ह्रदय भी मीठा हो जाए | यदि बाहर के बढ़िया कर्म के अनुसार ही भीतर का ह्रदय नहीं बनता है, तो तुम्हारे कर्म में सरलता नहीं है, कौटिल्य है | सरल व्यक्ति को चिंता नहीं करनी पड़ती, दाँव-पेंच नहीं सोचना पड़ता, षडयंत्र नहीं करना पड़ता | महाभारत में कहा- ‘सर्वं जिह्मं मृत्युपदं आर्जवं ब्राह्मण: पदम’ – कुटिलता जितनी है वह मृत्यु का निवास-स्थान है व सरलता-ऋजुता ब्रह्म का निवास-स्थान है | अगर ब्रह्म को अपने ह्रदय में प्रकट करना चाहते हो तो सरलता धारण करो और यदि मृत्यु को अपने अंदर बुलाना चाहते हो तो कुटिलता धारण करो |

“एतावान ज्ञानविषय: प्रलाप: कीं करिष्यति ?”

बहुत बकवाद में क्या रखा है ? सारे ज्ञान का सार इतना ही है | क्या ? कि – जीवन की सरलता | सरल बुद्धि, सरल मन, सरल जीवन, सरल आचरण | कौटिल्य नहीं हो – इसी को बोलते हैं – आर्जव | मनुजी लिखते हैं :-

 

यस्य वाडमनसे शुद्धे सम्यग् गुप्ते च सर्वश: |

स वै सर्ववाप्नोती वेदान्तोपगतं फलम् ||

 

जिसकी वाणी व मन दोनों शुद्ध हैं, माने कौटिल्य से रहित हैं और जो चारों ओर से भली प्रकार रक्षित अर्थात संयमित है, वही वेदांत के प्रतिपादित फल को पाता है |

 

 

 

 

 

 

 

 

बहुत ज्यादा विस्तार से क्या प्रयोजन ? जो बात मुझे बतानी है, वह कम शब्दों व कम समय में मैं बता दूँ – यह पर्याप्त है | दो टूक में सत्य को समझा दूँ और आप समझ लें – काम बन जायेगा | जो बहुत ज्यादा पढ़ने से समझ में आये, वही मैं दो शब्दों में, थोड़े में, चंद पन्नों में, इस छोटी सी पुस्तिका के माध्यम से आपको समझाने का प्रयत्न कर रहा हूँ |

 

-         आपका अपना

‘नारायण’

 

 

 

 

 

 

 

गरीब आदमी ऋषि आश्रम में झाड़ू लगा रहा था, उन्होंने उसे भी अपने साथ ले लिया | और आगे गये तो एक मछुआरा मछली पकड़ रहा था | पुत्री ने इशारा किया और उसे भी साथ ले लिया | सबको लेकर रथ राज-महल में पहुँचा |

मंत्री की पुत्री ने राजा के समक्ष उपस्थित होकर अपना परिचय दिया और कहा कि ‘राजन ! ये चारों आपके प्रश्न के उत्तर हैं |’ किसी की समझ में बात नहीं आई | इसलिए मंत्री की पुत्री ने उत्तर का विवरण करते हुए कहा कि आपके पहले प्रश्न का उत्तर ये गुरुपुत्र हैं | इन्होंने पिछले जन्म में अच्छे कार्य किये थे, इसलिए इनका जन्म राज-गुरु के यहाँ हुआ है | अभी भी ये सत्कर्म में लगे हुए हैं, इसलिए इनका अगला जन्म भी उत्तम ही होगा | अर्थात है, है है |

 

आपके दूसरे प्रश्न का उत्तर है – यह नगर सेठ का पुत्र | इसने पिछले जन्म में अच्छे कर्म किये थे इसलिए इसका जन्म नगर सेठ के यहाँ हुआ है, पर जुआँ खेलकर और बुरी आदतों में फँसकर यह अपना वर्तमान बर्बाद कर रहा है, इसलिए इसका अगला जन्म अच्छा नहीं होगा |

अर्थात – है, है, नहीं |

तीसरे प्रश्न का उत्तर है – यह बूढ़ा आदमी | इसने पिछले जन्म में शुभ कर्म नहीं किये थे इसलिए इस जन्म में दरिद्र हुआ है | किंतु इस जन्म में गुरु द्वार पर सेवा कर रहा है इसलिए इसका अगला जन्म अच्छा होगा |

अर्थात – नहीं, नहीं, है |

और चौथे प्रश्न का उत्तर है – यह मछुआरा | इसने पिछले जन्म में अशुभ कर्म किये थे, इसलिए अभी मछुआरा बना है और अभी भी मछलियाँ पकड़ने का हीन कर्म ही कर रहा है | कोई शुभ कर्म नहीं कर रहा है इसलिए इसका अगला जन्म भी अच्छा नहीं होगा |

अर्थात – नहीं, नहीं, नहीं |

सभी लोग उस बुद्धिमान लड़की के प्रश्नों का उत्तर सुनकर बड़े खुश हुए और उसकी बहुत प्रशंसा की | राजा

 

 

 

 

 

 

 

 

 

हिम्मत कभी न हारो, साधो ! हिम्मत कभी न हारो !

अपने पवित्र लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग पर दृड़तापूर्वक चलो | कोई साथ है या नहीं इसकी फिक्र करने की जरुरत नहीं है | सूरज कैसे अकेला चलता है, चन्द्रमा कैसे अकेला चलता है | तो यह अंदर की वीरता होनी चाहिए, आत्मबल होना चाहिए | नेपोलियन से कहा गया कि फलानी जगह जाना है, फलाने देश को जीतना है | सेनापति ने कहा – वहाँ जाने का रास्ता ढूंढना होगा | शायद बीच में बड़ा जंगल आता है और शायद रास्ता भी नहीं है | फिर नेपोलियन ने कहा – अगर रास्ता नहीं होगा तो हम रास्ता स्वयं बनायेंगे | इसे बोलते हैं प्राणबल, मनोबल | करना है तो मतलब करना है | होना चाहिए, मतलब होना चाहिए | कोई शक्ति तुम्हें रोक नहीं सकती |

तुम चाहो तो बुरे वक्त को अच्छा बना सकते हो | तुम चाहो तो समय की धाराओं को बदल सकते हो | तुम चाहो तो वक्त का मुँह मोड़ सकते हो | यह तो धरती है तुम आसमान बदल सकते हो | यह शक्ति भगवान ने मनुष्य

 

 

 

 

 

को दी है | ईश्वर ने ठंड बनाई तो तुमने स्वेटर, शोल, मफ्लर बना लिए | भगवान ने पत्थर बनाए, तुमने जूते, चप्पल बना लिए | भगवान ने आंधी, धूप बनाई तो तुमने मकान बना लिया | भगवान ने दुःख दर्द बनाया, अज्ञान बनाया तुम भी पीछे क्यों हटो, तुमने सत्संग पा लिया, संत का दर्शन व ध्यान, योग ढूँढ लिया | मनुष्य के लिए कदम-कदम पर परीक्षा है | स्कूली परीक्षा तीन महीने में, छ: महीने में पूरी हो जाती है लेकिन यहाँ तो कदम-कदम पर परीक्षाएँ देनी है | क्या पता कौनसी घड़ी परीक्षा देने की आ जाए ! तुम्हें परीक्षा देनी है तो बुद्धि से दो, शक्ति से दो, हिम्मत से दो, साहस से दो, युक्ति से दो, भक्ति से दो, सफल हो जाओगे | हिम्मत ना हारिये, प्रभु ना बिसारिए, हँसते मुस्कराते हुए जिंदगी गुजारिये |

अपने आप को असमर्थ एवं अयोग्य समझना बड़े में बड़ा पाप है | अपने आप में दृढ़ विश्वास रखो | तुम इस संसार में सब कुछ हासिल कर सकते हो |

ओम हिम्मत.......ओम शक्ति........ओम साहस.............

Értékelések és vélemények

3,8
38 vélemény

A szerzőről

 इस पुस्तक के लेखक narayan sai' ' एक सामाजिक एवं आध्यात्मिक स्तर के लेखक है | उसीके साथ वे एक आध्यात्मिक गुरु भी है |  उनके द्वारा समाज उपयोगी अनेको किताबें लिखी गयी है | वे लेखन के साथ साथ मानव सेवा में सदैव संलग्न रहते है | समाज का मंगल कैसे हो इसी दृढ़ भावना के साथ वे लेखन करते है |

E-könyv értékelése

Mondd el a véleményedet.

Olvasási információk

Okostelefonok és táblagépek
Telepítsd a Google Play Könyvek alkalmazást Android- vagy iPad/iPhone eszközre. Az alkalmazás automatikusan szinkronizálódik a fiókoddal, így bárhol olvashatsz online és offline állapotban is.
Laptopok és számítógépek
A Google Playen vásárolt hangoskönyveidet a számítógép böngészőjében is meghallgathatod.
E-olvasók és más eszközök
E-tinta alapú eszközökön (például Kobo e-könyv-olvasón) való olvasáshoz le kell tölteni egy fájlt, és átvinni azt a készülékre. A Súgó részletes utasításait követve lehet átvinni a fájlokat a támogatott e-könyv-olvasókra.